Saturday, 15 October 2016

अकेली हिंदु अफग़ानो में

अपनों के कत्ल सुने मैंने इनके अफ़सानों में
शक़ है की सच में क्या रहती हूँ मैं इंसानों में?
वार और राज्य, शह और मात प्रतीत होती इनकी जानों में,
तलवारों की आवाज़ें और चीखें गूँजती मेरे कानों में;
न जाने कैसे काटेगी ज़िंदगी अकेली हिंदु अफग़ानो में|

बाकी धर्मों को मार गिराने का हुक्म लिखा क़ुरान में,

खौफ़ फैला रखा है नन्हे-मुन्नों के प्राणों में|
औरतें क़ैद रहती इन चार दीवारों में,
काले बुर्खे में निकली बाहर संसार में|

न सहेलियाँ या कोई भी जो रह सके उनके पास में

क्यों यह मर्द रह जाते इस अंधविश्वास में?
एक लड़की ने खाई गोली, सीधे अपने जिस्म में,
क्यों अल्लाह ने लोग बनाए इस किस्म के?

ख़ुदा उनका इतना बुरा नहीं हो सकता,

कि वह लड़कियों को गवार और क़ैद रखता|
काश मैं ले आ पाती उन्हें अपने हिन्दुस्तान में,
ताकि खड़ी रह पाएँ अपने सही उँचे स्थान पे|
दर्द होता है उन्हें देख इस अकेली हिंदु को जो है अफग़ानो में|
-चिन्मयी कुलकर्णी

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